ऋषि मैत्रेय महाभारत कालीन एक महान ऋषि थे। ये महर्षि पराशर के प्रिय शिष्य और और उनके पुत्र वेदव्यास के कृपा पात्र थे। इन्होने ही दुर्योधन को श्राप दिया था जिससे उसकी मृत्यु भीमसेन के हाथों हुई। इनका नाम इनकी माता “मित्रा” के नाम पर पड़ा और इन्हे अपने पिता “कुषरव” के कारण कौषारन भी कहा जाता है। वैसे तो इन्हे महर्षि पराशर ने समस्त वेदों और पुराणों की शिक्षा दी थी किन्तु ये विशेषकर विष्णु पुराण के महान वक्ता के रूप में विश्व प्रसिद्ध थे।
युधिष्ठिर ने अपने राजसू यज्ञ में इन्हे भी आमंत्रित किया था।इनके जन्म के विषय में एक कथा है कि एक बार महर्षि व्यास कही जा रहे थे तभी उन्होंने देखा कि एक कीड़ा बड़ी तेजी से सड़क पार करने की कोशिश कर रहा है। उसका ये प्रयास देख कर वेदव्यास ने उससे पूछा कि वो किस कारण इतनी तेजी से सड़क पार कर रहा है। तब उस कीड़े ने कहा – “हे महर्षि! थोड़ी देर में यहाँ एक बैलगाड़ी आने वाली है। मैं उसकी ध्वनि सुन सकता हूँ। अगर तब तक मैंने इस सड़क को पार ना किया तो निश्चय ही मृत्यु को प्राप्त हो जाऊंगा।” तब महर्षि व्यास ने कहा – “रे मुर्ख! तो तेरा मरना ही उत्तम है। तू क्यों कीट योनि में पड़ा रहना चाहता है। उचित ये है कि इस जीवन से मुक्ति पा और किसी अंत श्रेष्ठ योनि में जन्म ले।” तब उस कीड़े ने कहा – “महर्षि! प्राणी की योनि कोई भी हो किन्तु वो उसी में विभिन्न प्रकार के कष्ट भोगते हुए भी जीवित रहना चाहता है।” तब व्यास मुनि ने द्रवित होते हुए कहा – “तू निश्चिंत होकर अपने इस जीवन का त्याग कर। मैं अपनी योगविद्या से तुझे आने वाली सभी योनिओं से तब तक मुक्त करता रहूँगा जबतक तू मनुष्यों के श्रेष्ठ ब्राह्मण योनि में जन्म नहीं ले लेता।” महर्षि की ऐसा बात सुनकर और उनपर विश्वास कर वो कीड़ा वही स्थिर हो गया और बैलगाड़ी से कुचलकर मर गया। उसके बाद उसने कौवा, सियार, मृग, पक्षी आदि योनि में जन्म लिया किन्तु महर्षि व्यास की प्रेरणा से शीघ्र ही सभी योनिओं में मृत्यु को प्राप्त करने के बाद मुक्त होता चला गया। अंत में उसने मनुष्य योनि में पहले शूद्र, फिर वैश्य, फिर क्षत्रिय के रूप में जन्म लिया और शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त कर मुक्त हो गया। अंततः महर्षि व्यास की कृपा से एक ब्राह्मण के कुल में जन्म लिया। उस जन्म में महर्षि व्यास ने उसे केवल ५ वर्ष की आयु में सारस्वत मन्त्र की दीक्षा दी। जब वो ७ वर्ष का हुआ तो उसे महर्षि व्यास ने कहा कि “कार्तिक क्षेत्र में एक ब्राह्मण नंदभद्र कई वर्षों से तपस्या कर रहा है किन्तु उसके मन का समाधान नहीं हुआ। जाकर उसकी शंका का समाधान करो।” उनकी आज्ञा से वो बालक नंदभद्र के पास पहुँचा और उनसे उनकी शंका पूछी। केवल ७ वर्ष के बालक के मुख पर ऐसा तेज देख कर नंदभद्र ने उससे जीवन और मृत्यु के कई रहस्य पूछे और अपनी शंका का समाधान किया। नंदभद्र को निःशंक कर उस बालक ने बदुहक़ तीर्थ में लगातार ७ दिनों तक सूर्यमन्त्र का जाप करते हुए अपने शरीर को त्याग दिया। वही बालक अगले जन्म में पुनः ब्राह्मण योनि में कुषराव और मित्रा के पुत्र के रूप में जन्मा और उसका नाम मैत्रेय पड़ा। उस जन्म में महर्षि व्यास ने ही उसे अपने पिता पराशर के पास भेजा जिन्होंने उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया। जब दुर्योधन ने पांडवों को जुए में हराकर वनवास को भेज दिया तब वे उसे समझाने हस्तिनापुर पहुँचे। हस्तिनापुर में भीष्म, विदुर और महाराज धृतराष्ट्र ने उनका बड़ा आदर किया और उनकी आज्ञा से दुर्योधन को वहाँ बुला भेजा। तब मैत्रेय ऋषि ने दुर्योधन को भांति-भांति से समझाया कि भाइयों के बीच ऐसा वैमनस्य ठीक नहीं है और उसे आदरपूर्वक पांडवों का राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए। किन्तु जब तक मैत्रेय ऋषि उसे उपदेश देते रहे, वो लगातार हँसते हुए अपनी जंघा को ठोकता रहा। उसकी इस धृष्टता पर क्रोधित हो मैत्रेय ने उसे श्राप दिया कि – “रे अधम! जो व्यक्ति अपने बड़े और सिद्ध पुरुष का सम्मान नहीं करता वो निश्चय ही अधोगति को प्राप्त होता है। मैं तुझे धर्म का ज्ञान देने का प्रयास कर रहा हूँ और तू अपनी जंघा को ठोककर मेरा अपमान कर रहा है। तो जा मैं तुझे श्राप देता हूँ कि तेरी इसी जंघा के टूटने पर तेरी मृत्यु होगी।” मैत्रेय ऋषि के इसी श्राप के कारण भीमसेन ने युद्ध में दुर्योधन की जंघा तोड़ कर उसका वध किया था। जब श्रीकृष्ण अपनी लीला समाप्त कर रहे थे तो उन्होंने मैत्रेय ऋषि से महात्मा विदुर को आत्मज्ञान देने की प्रार्थना की क्यूंकि इस महाविनाश से विदुर अत्यंत दुखी थे और लगभग विक्षिप्त हो चुके थे। कृष्ण की प्रार्थना पर मैत्रेय विदुर से गंगातट पर मिले और उन्होंने भांति-भांति से सांत्वना देकर उनका संताप दूर किया। उन्होंने विदुर को आत्मज्ञान दिया और हरिप्राप्ति के लिए उद्योग करने को कहा।F