मनुष्य प्राकृतिक प्राणी है। शरीर से मानव है, भीतर से कहीं पशु भी है। शरीर उसको कर्म करने तथा पिछले कर्मों के फल भोगने के लिए मिलता है।
फलों की इसी छाया में उसका अज्ञान-अवतार होता है। वह अपने चारों ओर अज्ञान का वातावरण ही देखता है। उसी में अपने ऋणानुबन्ध चुकाता है तथा वातावरण में अपने मन की जिज्ञासाओं के उत्तर ढंढ़ता है। किसी को देखकर उसके मन में प्रतिक्रिया होती है। कहीं मन श्रद्धा से नत हो जाता है। श्रद्धा उसका पथ प्रदर्शन करती है। वह पुन: वहीं लौटना चाहता है।
ये उसके ‘अनवद्य कर्म’ होते हैं। लोक संग्रह के प्रतिनिधि कर्म कहलाते हैं। उसके विपरीत कर्म, निन्द्य कर्म कहे जाते हैं। माता-पिता एवं गुरु अनवद्य कर्म के प्रतिनिधि कहे गए हैं।
ये लोक संरक्षण के लिए जाने जाते हैं। इनको बच्चे पुस्तकों की तरह पढ़ते हैं। इनके जैसा ही आचरण करना चाहते हैं। शिक्षा समाप्ति के बाद शिक्षक भी छात्र से यही कहता है कि ‘मेरे अनवद्य कर्मों का ही सेवन करना। यही मेरा उपदेश है, यही मेरा आदेश है। लोक संग्राहक अथवा आदर्शमय जीवन संघर्ष का साहस रखने वाला ही जी सकता है। राम इसे जी गए लेकिन रावण नहीं जी पाया।
प्रारब्ध से राजा के घर में जन्म लेने से भी राजा तो बना जा सकता है किन्तु जन संरक्षक बनकर सभी कहां जी पाते हैं। तभी तो आज भी राम-राज्य की कल्पना जीवित है।
कृष्ण-राज्य की कोई अवधारणा लोक में प्रचलित नहीं है। अवतार तो कृष्ण भी विष्णु के ही थे। हमारी लोकतन्त्र की अवधारणा के पीछे महात्मा गांधी की रामराज्य की कल्पना ही थी। अन्तिम समय भी उनके मुंह से राम ही निकला था। लोक में कहावत है-‘रामादिवद् वर्तितव्यं न कश्चिद् रावणादिवद्। आचरण, बरताव, व्यवहार राम जैसों का ही करना चाहिए, रावण जैसों का नहीं।
राम को जब चौदह वर्ष वनवास जाने का आदेश हुआ तो उनके चेहरे पर न हर्ष था, न ही विषाद का भाव। बेहोश पिता के लिए अवश्य कहा कि इनको तो संभाल लिया जाए। लेकिन, कैकेयी ने तुरन्त मना कर दिया कि तुम क्यों चाहते हो कि ये होश में आ जाएं? क्या वनवास जाने के आदेश को बदलवाना चाहते हो? राम ने कहा-‘रामो द्विर्नाभिभाषते। अर्थात् राम दो बात नहीं कहता। अत: सत्यप्रिय होने से मैं वन जाऊंगा।
ईश्वर अवतार क्यों लेता है? भिन्न-भिन्न काल विशेष के अनुरूप लोकाचार के उदाहरण समाज के समक्ष रखते हैं। राम सीता के साथ 14 वर्ष वनवास में रहे। पाण्डव बारह वर्ष वन में, एक वर्ष अज्ञातवास में रहे। पूर्ण ब्रह्मचर्य में रहे।
उस काल को अनुष्ठान माना। बिना पत्नी के कोई भी ऋषि उम्रभर ब्रह्मचारी रह सकता है। पत्नी के साथ, वन में ब्रह्मचारी रह पाना तो ऋषियों के लिए भी असंभव है। फिर राजाओं के लिए? इसीलिए सीता और द्रोपदी सती कहलाई हैं। दोनों नि:सन्तान ही लौटीं। आज तो सत्ताधारी पशुभाव से बाहर जीना सत्ता का अपमान मानते हैं। इसीलिए इतिहास उनको क्यों याद रखेगा!
आज सत्ताधीश स्वयं को लोक सेवक कहते हैं। जनता के कंधों पर पैर रखकर अपने लिए स्वर्ग का निर्माण करते हैं। राम लोक की सेवा नहीं आराधना (पूजा, उपासना, अर्चना) करते थे। ऐसा ‘उत्तररामचरितम्’ में महाकवि भवभूति ने वर्णन किया है-
स्नेहं दयां च सौख्यं च
यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो
नास्ति मे व्यथा ॥
राजा थे तो प्रजा के अन्तिम छोर तक का सम्मान करते थे। नीचे तक जुड़े थे। भवभूति कहते हैं कि राम अपने लोकाचार के प्रति इतने जागरूक थे कि उनके कर्तव्य मार्ग में कोई भी वस्तु बाधा नहीं बन सकती थी। चाहे कोई स्नेहमयी मूर्ति (व्यक्तित्व) हो या दया-करुणा। कोई अत्यन्त प्रिय या सुख देने वाली वस्तु भी उनको नहीं रोक सकती थी।
यहां तक कि वे सीता को भी छोड़ सकते थे। जो उन्होंने करके भी दिखाया। सीता को जब वनवास भेजा, तब तो वह गर्भवती भी थीं। राम ने किसी प्रकार की दया का भाव व्यक्त नहीं किया। अर्थात् राम-राज्य में अन्तिम व्यक्ति की भी सुनवाई होती थी।
कृष्ण गणों के माध्यम से गणतन्त्र में रहे। राम यूं तो राजतन्त्र में थे, किन्तु जनता के प्रति अत्यन्त संवेदनशील थे। पं. नेहरु के लोकतन्त्र को देखकर गांधीजी ने कह दिया था कि रामराज्य नहीं आएगा। रामचरितमानस में तुलसीदास लिखते हैं-
वेद पुराण वसिष्ठ बखानहीं।
सुनहि राम जद्यपि सब जानहीं ॥
महर्षि वशिष्ठ बोलते थे तब राम सुनते थे। हालांकि वे सब कुछ जानते थे। ताकि उनको देखकर दूसरे लोग भी वशिष्ठ की बातों पर कान दें। आपको वह सब आचरण करके दिखाना चाहिए, जैसा आप लोक से अपेक्षा करते हैं। लोक में धर्म की स्थापना संकल्प रूप में व्याप्त हो जाए। जो अधर्म के वातावरण में धर्म का भाग छूटता जा रहा हो, उसकी पुन: स्थापना करना ही लोक संरक्षण का कार्य है।
लोक संरक्षण की दृष्टि से आदर्श पुरुष अथवा महापुरुष में चार बिन्दु प्रमुख होते हैं। पहला और मुख्य बिन्दु तो ‘नाम ही है। लोक का प्रथम आकर्षण नाम में ही होता है। नाम का प्रभाव दूर बैठे व्यक्ति पर बिना आमने-सामने आए भी होता है। नाम में व्यक्तित्व रहता है, व्यक्तित्व की चुम्बकीय शक्तियां रहती हैं।
राम-कृष्ण-महावीर-बौद्ध-ईसा जैसे महान् व्यक्तित्व आज भी नाम के कारण ही जाने जाते हैं। यह महात्मा गांधी का नाम ही था, जिसके साथ आजादी की जंग में पूरा देश जुड़ गया था।
भला कितने लोगों ने उनको व्यक्तिश: देखा होगा! नाम का कितना प्रभाव होता है यह बात इसी तथ्य से समझी जा सकती है कि विश्व भर में महापुरुषों और अवतारों के नाम की मालाएं फेरी जाती हैं। नाम की महिमा से तो हमारे शास्त्र भरे हुए हैं। जनश्रुति है कि मरते समय रावण के मुंह से भी ‘राम’ नाम ही निकला था।
प्रथम दृष्टि में जो प्रभाव व्यक्ति का पड़ता है, उसका कारण है-‘रूप’। रूप में सुन्दरता का आधार है आभामण्डल। कोई चेहरा तभी सुन्दर लगता है, जब उसके भीतर से कान्ति प्रवाहित होती हो।
कान्तिविहीन चेहरा शृंगार करके भी रूपवान नहीं लगता। वैसे नाम और रूप हटा दिए जाएं, तो सारे भेद स्वत: ही (स्थूल) समाप्त हो जाते हैं। मन्दिरों में जो झांकियां सजाई जाती हैं, उनका आधार रूप ही है।
स्तुति करने वालों का आकर्षण बना रहना, दिखाई देने के दृष्टि को बांधे रखना एकाग्रता की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इसके बिना स्तुति में मन ही नहीं लगेगा। अनुसरण करते रहने के लिए यह रूप का आकर्षण नित्य ही बना रहना चाहिए।
गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे, तब सूट उतारकर धोती में आ गए। इसी लंगोटी वाले रूप ने उनके नाम के साथ महात्मा जोड़ दिया। गांधीजी को जितना जन समर्थन मिला, उसमें ‘महात्मा’ शब्द की भी महती भूमिका रही। क्या सूट पहने हुए गांधी को इतना बड़ा जन समर्थन मिल सकता था?
राम और कृष्ण को नाम-रूप के साथ उनकी ‘लीला’ भाव की अभिव्यक्ति से ही जाना जाता है। कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन गतिमान रहा। लीलाओं का संग्रहालय ही था। गीता अर्जुन को सुनाई होगी किन्तु आज सम्पूर्ण विश्व सुन रहा है।
कैसे कोई भूलेगा कृष्ण को? रावण के तो नाम और रूप अत्यन्त प्रभावशाली रहे होंगे। उसके लीला भाव के स्वरूप ने जन मानस में आसुरी छवि बना दी। असुर भी अवतार कोटि का ही था। अत: लोकसंग्रह की दृष्टि से रावण सर्वाधिक लोकप्रिय नाम है जो बुराई से बचने के लिए डराने के काम आता है-‘ऐसा मत करना, रावण उठाकर ले जाएगा।
लीला भाव संस्कारों का अंग होता है। लंगोटी पहनकर संघ का प्रचार करने वाले प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जब दस लाख रुपए का सूट पहना तो देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। महात्मा गांधी के साथ ऐसा नहीं हुआ। अपूर्व जनसमर्थन मिलता ही चला गया। त्याग का प्रभाव, आकर्षण तथा नीयत ही व्यक्ति को आदर्श बनाते हैं। इसी संदर्भ में गांधीजी ने अपना धाम-साबरमती भी नहीं छोड़ा।
गांधीजी का सपना राम-राज्य था। किन्तु वह हिन्दुवादी राम-राज्य नहीं था। उनका लोकप्रिय भजन था-रघुपति राघव राजाराम, पतितपावन सीताराम ॥ इस देश ने किसी को भी राजा नहीं माना।
केवल वही राजा बन पाया जो धर्म की मर्यादा से सुशोभित रहा अर्थात् राजा राम। कृष्ण नहीं, बुद्ध नहीं। राम के बाद दूसरे नाम स्वीकार हुए-धर्मराज युधिष्ठिर और राजा विक्रमादित्य। शेष राजा इतिहास के पन्नों में खो गए। जिस प्रकार 67 वर्ष बाद हमारे लोकतन्त्र में राम-राज्य का सपना खो गया। गांधीजी का लोक संग्रह का उद्घोष-‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, पीर पराई जाने रे। भी हिन्दुवादी मुखौटों के पीछे खो गया।