आप सभी ने प्रभु श्री राम और लंकापति रावण से जुडी कई कहनियाँ सुनी होंगी. ऐसे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं वो कथा जब लंकापति रावण ने राम से मांगी थी एक विचित्र दक्षिणा. आइए बताते हैं.
पौराणिक कथा – प्रभु श्री राम ने रामेश्वरम में जब शिवलिंग की स्थापना करी थी तब ब्राह्मण के कार्य के लिए उन्होंने रावण को निमंत्रित किया. रावण ने भी उस निमंत्रण को स्वीकार किया तथा उस अनुष्ठान के आचार्य बने. रावण त्रिकालज्ञ था, वह यह जानता था की उसकी मृत्यु सिर्फ श्री राम के हाथो लिखी गई है. वह भगवान श्री राम से कुछ भी दक्षिणा में मांग सकता था परन्तु वह जानता था की उसकी मृत्यु भगवान श्री राम के हाथो लिखी गई है. आइये जानते है की आखिर कौन सी विचित्र दक्षिणा रावण ने श्री राम से मांगी थी ?
श्री राम द्वारा जामवन्त जी को रावण को निमंत्रण देने के लिए भेजा गया. जामवन्त जी के शरीर का आकर विशाल था, तथा कुम्भकर्ण के आकर की तुलना में वह तनिक ही छोटे थे. इस बार राम ने बुद्ध-प्रबुद्ध, भयानक और वृहद आकार जामवन्त को भेजा . पहले हनुमान, फिर अंगद एवं अब जामवन्त.
जब जामवन्त के लंका में पधारने की खबर लंका वासियो को चली तो सभी इस बात से डर से सिहर गए. निश्चित रूप से दिखने में जाम्पवन्त थोड़े अधिक भयावह थे. जामवन्त को सागर सेतु लंका मार्ग सुनसान मिला. कही कोई भी जामवन्त को दिख जाता तो वह केवल इशारे मात्र से राजपथ का रस्ता बता देता. उनके सम्मुख खड़े होने एवं बोलने का साहस किसी में न था.
यहाँ तक स्वयं लंका के प्रहरी उन्हें मार्ग दिखा रहे थे. उन्हें किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं पड़ी. जामवन्त के लंका पधारने की खबर द्वारपाल ने रावण तक दौड़ के पहुंचाई. रावण स्वयं चलकर जामवन्त के स्वागत के लिए राज महल से बाहर आया तथा जामवन्त का सेवा सत्कार करने लगा. रावण को देख जामवन्त मुस्कराए तथा रावण से बोले में तुम्हारे अभिनंदन का पात्र नहीं हु.
क्योकि में यहाँ वनवासी राम के दूत के रूप में यहाँ आया हु. रावण ने जामवन्त की बात सुन महल के भीतर आमंत्रित किया. तथा जामवन्त को आसन में बैठाकर उनके साथ आसन में बैठा.
जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने तुम्हें प्रणाम कहा है. वे सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं. इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्ठा प्रकट की है . मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ.
हालाकि रावण यह जानता था की भगवान राम द्वारा यह अनुष्ठान स्वयं उसके पराजय के लिए किया जा रहा है, परन्तु उसने जामवन्त द्वारा सुनाया गया यह निमंत्रण खुसी खुसी स्वीकार लिया. परन्तु रावण के मस्तिक में उस समय एक अजीब सा प्रसन आया और वह जामवन्त से बोला जामवंत जी ! आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं . यदि हम आपको यहाँ बंदी बना लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे ? जामवंत खुलकर हँसे .
मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझ किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता. ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां विद्यमान हूँ, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह दृश्यवार्ता स्पष्ट रूप से देख-सुन रहे हैं . जब मैं वहाँ से चलने लगा था तभी धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं .
उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्त ! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा. इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुंचाने की व्यवस्था करें.
यह बात सुन वहां उपस्थित सभी दानव भयभीत हो उठे. यहाँ तक की रावण भी इस बात को सुन काँप गया. पाशुपतास्त्र ! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते . अब भले ही वह रावण मेघनाथ के त्रोण में भी हो.
जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे उठा नहीं सकते . उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं . रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा – आप पधारे. यजमान उचित अधिकारी है. उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है. राम से कहिएगा कि मैंने उनका आचर्यतत्व स्वीकार किया.
इसके पश्चात जामवन्त रावण का संदेश लेकर वापस लोट आये.
जामवन्त के वापस लौटने के पश्चात रावण अशोक वाटिका माता सीता के पास पहुंचा और बोला की राम द्वारा विजयी प्राप्ति के लिए अनुष्ठान किया जा रहा है और उनका आचर्य हु. यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व यजमान का ही होता है और यह बात तुम्हे ज्ञात ही के अर्धांगिनी के बिना अनुष्ठान जैसा पवित्र कार्य एक गृहस्थ के लिए अपूर्ण माना जाता है. अतः राम के इस कार्य पूर्ण करने के लिए तुम मेरे विमान में बैठ जाओ पर ध्यान रहे की तुम उस वक्त भी मेरे अधीन ही रहोगी.
इसके बाद रावण माता सीता के साथ उस स्थान पर जहाँ श्री राम ने अनुष्ठान का आयोजन किया था. भगवान राम ने रावण को प्रणाम करने के साथ ही उसका उचित आदर सत्कार किया. इसके पश्चात रावण द्वारा अनुष्ठान सम्पन करया गया.
अब बारी थी यज्ञ के बाद राम द्वारा आचार्य रावण को दक्षिणा देने की. राम ने दक्षिणा की प्रतिज्ञा लेते हुए रावण से कहा की आचार्य आप की दक्षिणा ?
परन्तु रावण ने कहा वह आश्चर्य चकित करने वाला था. प्रभु राम का शत्रु होने के बावजूद रावण राम जी से कहा घबराओ नहीं यजमान में कोई ऐसी वास्तु अथवा सम्पति दक्षिणा में नहीं मांगूंगा जो आप देने में असमर्थ हो या जो आपको अपने प्राणो से भी प्रिय हो. यह आचर्य तो अपने यजमान से सिर्फ यही दक्षिणा में चाहता है की जब वह मृत्यु शैय्या ग्रहण करें तो यजमान सम्मुख हो. भगवान श्री राम ने रावण को वचन दिया की वह समय आने पर अपना वादा जरूर निभाएंगे.