लेकिन उनके जीवन और संवेदन पर शुरू से आज तक सैकड़ों ग्रंथ लिखे गए हैं। विश्व के आदिग्रन्थ ऋग्वेद से शुरू कर आधुनिक दौर में रचे जा रहे दृष्य श्रव्य साहित्य तक हर कहीं राम चरित का चित्रण और उल्लेख है।
एक व्याख्या के अनुसार ऋग्वेद की एक ऋचा में सम्पूर्ण रामकथा संक्षेप में समाहित कर दी गयी है। ऋचा इस प्रकार है-
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन, रूशद्र्भिर्वर्णेरभि राममस्थात्॥ (ऋग्वेद 10-3-3)
रामकथा के अनेक पात्रों का वर्णन वैदिक साहित्य में भी देखने को मिलता है। उदाहरणार्थ इक्ष्वाकु (अर्थर्ववेद 19-39-9), दशरथ (ऋग्वेद 1-126-4), कैकेय (शतपथ ब्राह्मण 10-6-1-2) तथा जनक (शतपथ ब्राह्मण) आदि। सम्भव है कि तत्कालीन भारत में इस नाम के अन्य पात्र भी रहे हों। उनके साथ जुड़े गुण उन्हें रामकथा से संबंधित करते अवश्य प्रतीत होते हैं, परन्तु यह उल्लेखनीय है कि राम-जन्म की घटना, वैदिक साहित्य के बहुत बाद की है।
यह भी सम्भव है कि कालान्तर में इन नामों से संबधित अंश वैदिक साहित्य में जोड़ दिये गए हों। वाल्मिकी रामायण के आदिकाव्य और रामकथा के प्रथम गान के बावजूद तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ लोकप्रियता की दृष्टि से सबसे आगे है। लोकभाषा में होने के कारण इसने रामकथा को जनसाधारण में अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया। इसमें भक्ति-भाव की प्रधानता है तथा राम का ईश्वरत्व पूरी तरह उभर आया है। सीता राम का विवाह भी संभवतया तुलसीकृत रामायण के कारण ही प्रतिष्ठित और वंदित हुआ।
सीता-राम का विवाह प्रसंग पढ़ने सुनने और भक्ति रस का आस्वाद लेने में तो अत्यंत मधुर है ही, साथ ही उसमें एक आश्वासन भी निहित है। आश्वासन यह कि जो इस मांगलिक प्रसंग का गायन, श्रवण करते हैं, उनके जीवन में आनंद उत्साह की प्राप्ति होती है। विवाह संबंधी कठिनाइयों को दूर करने के लिए श्रद्धालु इस प्रसंग का पाठ करते-कराते हैं।
सीता मैया के अवतरण से विवाह तक के प्रसंगों में आध्यात्मिकता, भावनात्मकता एवं आधुनिकता के रंगों का समावेश गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में किया है, वह अत्यंत ही ज्ञानवर्धक और मनमोहक है। जिसे पढ़कर सहज ही हृदयंगम किया जा सकता है। श्री राम शक्ति, शील और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति हैं। अयोध्या को श्रीराम ने शील से जीता, जनकपुरी को सौंदर्य और लंका को शक्ति से जीता था। नर लीला की पूर्णता के लिए अभिन्न श्री सीताराम लौकिक दृष्टि से कुछ समय के लिए भिन्न भी हो जाते हैं।
वर्तमान में श्री राम अवध नरेश महाराज दशरथ के सुयोग्य पुत्र हैं, राजकुमार हैं तो सीताजी जनकपुर के राजा जनक की लाडि़ली सुकुमारी हैं। इन्हीं जनकसुता के विवाह के लिए महाराज जनक स्वयंवर का आयोजन करते हैं। स्वयंवर का क्या परिणाम हुआ, भिन्न कैसे अभिन्न हुए और श्री सीताराम का विवाह लोक नीति से संपन्न हुआ, इसमें इच्छा स्वयंवर, प्रण स्वयंवर, लौकिक रीति और शास्त्रीय विधि विधान का अद्भुत समन्वय है। महाराज जनक ने सीता विवाह के प्रण स्वयंवर का आयोजन किया।
श्री राम ने धनुष भंग कर जनकजी के प्रण को परिपूर्ण कर दिया और सीताजी को प्राप्त कर लिया। सीताराम विवाह की विलक्षणता यह है कि इसमें इच्छा स्वयंवर भी हुआ। वह इच्छा की विलक्षणता है कि दोनों (श्रीराम-सीता) की इच्छा एक-दूसरे को वरण करने (देखने) की हुई, पुष्प वाटिका में एक प्रकार से इच्छा स्वयंवर हो जाता है। धनुष तोड़कर प्रण स्वयंवर पूरा किया गया ‘‘टूटत ही धनु भयेउ बिबाहू’’ और तीसरा विवाह शास्त्रीय विधि विधान से लौकिक रीति से किया गया।
तिन्ह कहूं सदा उछाहु मंगलायतनु राम जसु।।