युद्ध के आरंभ में राम यद्यपि अपूर्व पराक्रम से लड़ते हैं, फिर भी पलड़ा रावण का भारी रहता है। राम यह देखकर हैरत से भर जाते हैं कि स्वयं दुर्गा जो शक्ति की प्रतीक हैं, वह रावण के पक्ष में खड़ी हुई हैं। शक्ति के इस पक्षांतरण से यह युद्ध ‘नर-वानर’ का युद्ध नहीं रह गया है। राम जामवंत को समझाते हैं- “मित्रवर, विजय होगी न समर; यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण।”
रणभूमि में राम दिव्य बाणों का संधान कर रहे हैं कि यकायक देवी दुर्गा, रावण के पक्ष में विशाल रूप ग्रहण करके उसे अपने कवच से रक्षित कर देती हैं। राम के समस्त ‘ज्योतिर्मय अस्त्र’ बुझ-बुझकर क्षीण होने लगते हैं। निराला के राम का संशय युद्ध की रणनीति के परिदृश्य को लांघकर एथिक्स का प्रश्न बन जाता है। यह प्रश्न जितना दार्शनिक है, जीवन-क्षेत्र में व्यवहार शास्त्र की एक पहेली के रूप में उतना ही व्यावहारिक। यह कैसे हो सकता है?
राम भी यह सोचकर निस्तब्ध हैं-
“अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति! कहते छल छल;
हो गए नयन, कुछ बूंद पुनः ढलके द्रगजल।”
दुविधा यह है कि वह ताकत प्रथम दृष्टया नैतिक प्रतीत होती है। बावजूद इसके वह अन्याय का शिविर चुन लेती है। युद्ध के प्रारंभ में वह रावण के साथ है। युद्ध के अंत में वह रावण का साथ छोड़कर राम के साथ हो जाती है। ‘शक्ति’ की इस छीनाझपटी में शक्ति का अपना मूल्य और सिद्धांत क्या है? रावण उसे तपस्या से पाता है, राम को भी यही सलाह दी जाती है। देने वाले जामवंत जी हैं, जो रामायण के हर प्रारूप में एक चतुर नौकरशाह के गुणों से संपन्न व्यक्ति हैं। रावण तो अशुद्ध है। यदि अशुद्ध होकर वह शक्ति का पक्ष पा सकता है, तो तुम तो उससे भी कम समय में ‘शक्ति’ को ‘सिद्ध’ कर सकते हो, तुम्हें पूजन करना होगा। वह पूजन शक्ति की मौलिक कल्पना होगा।
वह राम से कहते हैं-
“आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर; तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर। रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त; तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त।”
प्रश्न यह उठता है कि राम की शक्ति पूजा में शक्ति की यह कल्पना ‘मौलिक’ किस प्रकार से है? युद्ध का अंतिम लक्ष्य तो विजय ही है। सत्ता की निरंतरता बनाए रखने के लिए क्या कुछ नहीं किया जाता? स्वयं राम के पास ‘महावीर’ के रूप में जो शक्ति है, निराला अपनी कविता में स्पष्ट कर देते हैं कि राम के लिए वह अमोघ है। प्रश्न यह है कि राम अपने पास ‘शक्ति’ से बड़ी शक्ति के होते हुए भी शक्ति की कौन सी अभिनव संकल्पना करना चाहते हैं। राम की शक्ति पूजा वस्तुतः इसी बिंदु पर एक गहरी नैतिक दुविधा को प्रस्तावित करके उसके समाधान खोजती है।
हालांकि शक्ति और मूल्यों की दुविधा की इस परंपरा में निराला के राम की स्थिति थोड़ी सी भिन्न है। निराला आधुनिक संवेदना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह शक्ति के तटस्थ और मूल्यविहीन स्वरूप से हैरान हैं। वह इस दैवीय विधान को समझ नहीं पाते कि शक्ति का यह कैसा खेल है, जिसमें नियति, न्याय के पक्ष को ही कमजोर बना रही है। इसलिए जब देवी दुर्गा राम की परीक्षा लेने के लिए यज्ञ के पूर्ण होने से पहले ही एक पुष्प को गायब कर देती हैं, तो राम का धैर्य जवाब दे जाता है। वह उस जीवन को ही धिक्कारते हैं- “धिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध; धिक साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध।” क्षण भर के लिए विचलित होकर वह पुनः संभल जाते हैं। पुष्प के स्थान पर अपने नयन का अर्पण प्रस्तुत करके वह शक्ति को प्रसन्न कर देते हैं।