जब राजा दशरथ ने देखा कि श्रीराम उत्तरदायित्व सँभालने योग्य हो गये हैं, तो उन्होंने वानप्रस्थ में प्रवेश के लिए उत्तरदायित्वों से मुक्त होने की योजना बनाई; किन्तु उसके सम्बन्ध में अकेले निर्णय नहीं लिया। वे पहले गुरु वसिष्ठ जी से परामर्श करते हैं और फिर सभी सहयोगी कार्यकर्त्ताओं से सहमति प्राप्त करते हैं-
मुदित महीपति मंदिर आये। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाये।।
जो पाँचहि मत लागइ नीका। करहु हरिष हिय रामहिं टीका।।
व्यवस्थात्मक उत्तरदायित्व जिस किसी पर भी हो, उसे सामूहिकता की मर्यादा बनाये ही रखनी चाहिए। उससे परस्पर स्नेहभाव भी बढ़ता है तथा अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी हल भी निकाले जा सकते हैं। राजा दशरथ की मृत्यु के बाद गुरु वसिष्ठ पर राज्यव्यवस्था का प्रधान उत्तरदायित्व आ पड़ा। भरत को राज्य देने के प्रसंग में वे भी उसी पद्धति का निर्वाह करते हैं-
सुदिन सोधि मुनिवर तब आये। सचिव महाजन सकल बोलाये॥
बैठे राज सभा सब जाई। पठये बोलि भरत दोउ भाई॥
व्यवस्थापक ही नहीं, सामान्य नागरिक तथा कार्यकर्त्ता भी यदि सामूहिकता का लाभ उठाने के अभ्यस्त हैं तो विषम परिस्थितियों में भी मार्ग निकाल लेते हैं। सीता की खोज में निकले योद्धा जब अवधि पूरी होने पर भी कोई सूत्र नहीं पा सके, तो उन्होंने भी सामूहिक परामर्श एवं चिन्तन का मार्ग पकड़ा-
इहाँ विचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लये करब का भ्राता॥
श्री रामचन्द्र जी अपनी वन यात्रा में जन-जन की सद्भावना जीतते हुए, उन्हें स्नेहसूत्र में आबद्ध करते हुए चलते हैं। उनमें सहयोगवृत्ति जाग्रत् करते चलते हैं। वन में इसी उद्देश्य से निकल पड़ते हैं और नगर में वह प्रवृत्ति जाग्रत् रखने के लिये आग्रह करके जाते हैं। भरत के लिये उन्होंने यही संदेश छोड़ा कि सामूहिक हित को ध्यान में रखकर चलें। गुरु वसिष्ठ जी से भी यही आग्रह करते हैं-
सब के साज संभार गुसाईं । करवि जनक जननी की नाईं॥
वन में वे वनवासियों में भी वही भाव भर देते हैं। जब कोल-भील मिलते हैं तो वे उन सबको सम्मान देते और सामाजिक गौरव का बोध कराते हैं।
राम सकल वनचर परितोषे। कहि मृदु वचन प्रेम परिपोषे॥
भगवान राम सहयोग देने और प्राप्त करने में कुशल हैं। उनके संगठन का अर्थ न तो आंतक है और न रूखी सैद्धान्तिकता। वे प्रेम भावना, उच्चस्तरीय संवेदना के आधार पर जन-भावना को सूत्रबद्ध करते हैं और अपने प्रयास में हर जगह सफल भी होते हैं। ऋषि वनचर आदि के अतिरिक्त साथ-साथ गीधराज को भी अपना सहयोगी बना लेते हैं-
गीधराज सों भेट भइ, बहु बिधि प्रीति बढ़ाय। गोदावरी निकट प्रभु, रहे परनगृह छाय॥
इसी सहयोगभाव तथा संवेदना जनित सामाजिक दृष्टिकोण ने ही गीधराज जटायु को शहीदों में अग्रणी बना दिया। श्री राम को सीता के सम्बन्ध में पहली जानकारी उसी से मिली। आगे भी उनकी सहयोग और संगठनवृत्ति ही सफलता के द्वार पर द्वार खोलती चली गयी। रीछ-वानरों को संगठित करके ही वे सीता की खोज करने और असुरत्व के विरुद्ध वातावरण तैयार करने में समर्थ हुए। उनके संगठन में भाँति-भाँति के वानर सम्मिलित थे।
एहि बिधि होत बतकही, आये बानर जूथ।
नाना बरन सकल दिसि, देखिय कीस बरूथ॥
जहाँ सामूहिकता और संगठन की शक्ति है, वहाँ बड़े से बड़े काम खेल की तरह हो जाते हैं। वानर संख्या में ही अधिक नहीं थे, उनमें सामूहिकता की वृत्ति तथा अनीति के प्रतिरोध के सामाजिक उत्तरदायित्व की बुद्धि भी प्रखरता से जाग चुकी थी। इसीलिए समुद्र पर पुल बनाने जैसा कठिन कार्य भी उन्होंने खेल की तरह कर डाला।
रीछ-वानरों की संघशक्ति और सहयोग वृत्ति देवताओं के लिए भी अजेय राक्षसों पर हावी हो गयी। रीछ वानरों की उपलब्धि को मानसकार अद्भुत कहते हैं। सामूहिक सहयोग के बल पर राक्षसों का विनाश हुआ तथा रामराज्य की स्थापना हुई; किन्तु सामूहिकता के दृष्टिकोण का विकास और शिक्षण बराबर चलता रहा, ताकि आदर्श समाज-व्यवस्था बराबर बनी रहे। अयोध्यावासी स्वयं भगवान के गुणों को जीवन में स्थान देते हैं तथा समाज को भी उनकी प्रेरणा देकर अपना सामाजिक उत्तरदायित्व निभाते हैं।
जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परस्पर यहहि सिखावहिं॥
रामचरितमानस से सामाजिक दृष्टिकोण, सहयोग और संगठन की महत्ता समझकर प्रेरणा लेकर यदि हम इस दिशा में सक्रिय हो सकें, तो कठिन से कठिन बाधाओं को पार करते हुए सुख शांति एवं समृद्धियुक्त आदर्श समाज की स्थापना करने में सफल हो सकते हैं।