भगवान विष्णु के सातवें अवतार श्री राम को शांतचित्त, गंभीर, सहिष्णु और धैर्यवान माना जाता है। वाल्मीकि रामायण हो या राम चरित मानस, दोनों में मर्यादापुरुषोत्तम की महानता के विशद वर्णन के साथ उनके कुछ ऐसे प्रकरणों का भी उल्लेख है जबकि श्री राम क्रोधावेश में निमग्न हो जाते हैं। आइए जानते हैं उन विशेष प्रकरणों को जबकि भगवान श्री राम को अपना क्रोध प्रकट करना पड़ा:
सीता जी के स्वयंवर के लिए राजा जनक की प्रतीज्ञा थी कि “जो कोई भी उनके दरबार में मौजूद भगवान शिव के धनुष को उठा कर उस पर तीर चढ़ाएगा, उसी से सीता जी का विवाह होगा।“ श्री राम जब धनुष उठाकर उस पर तीर चढ़ाने की कोशिश करते हैं तो धनुष टूट जाता है।
शिव भक्त परशुराम इससे बेहद क्रोध में आ जाते हैं तथा लक्ष्मण को चेतावनी देते हैं। तब मर्यादा पुरुषोत्तम भी क्रोधावेश में आकर अपने धनुष पर दिव्यास्त्र चढ़ाते हैं। ऐसे में परशुराम जी को श्री राम की वास्तविकता का भान होता है तथा वे स्वयं उन्हें शांत हो जाने के लिए मनाने लगते हैं।
बालि वध कर श्री राम ने सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य दिला दिया। इसके एवज में सुग्रीव ने सीता जी के खोज अभियान में सहायता करने का वचन दिया। किंतु बहुत दिनों से भोग-विलास से च्युत सुग्रीव अचानक राज-पाट पाकर अपना वचन भूल बैठे। क्रोधित श्रीराम ने भ्राता लक्ष्मण को अपना दूत बना कर सुग्रीव के पास भेजा ताकि उन्हें उनके वचन की याद दिलाई जा सके। लक्ष्मण सुग्रीव के पास पहुंचते हैं और उन्हें भोग विलास में लिप्त देखकर क्रोधित हो जाते हैं। तत्पश्चात सुग्रीव अपने श्रेष्ठतम सेनानायक हनुमान को श्री राम की सहायता के लिए नियुक्त करते हैं।
वनवास काल में चित्रकूट प्रवास के दौरान इंद्र का पुत्र काकासुर सीता जी की गरिमा व मर्यादा से खिलवाड़ करने की कोशिश करता है। इस पर भगवान श्री राम ने क्रोधित होते हुए तृण को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग करने का निश्चय किया। काकासुर तीनों लोकों में अपनी रक्षा की गुहार लगाता है किंतु उसकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आता। ऐसे में वह प्रभु श्रीराम के चरणों में लोट जाता है। ब्रह्मास्त्र को निष्फल नहीं होने दिया जा सकता है। श्रीराम ने उसके प्राण तो बख्श दिए किंतु ब्रह्मास्त्र से उसकी दाईं आंख पर प्रहार किया। इसीलिए मान्यतानुसार आज भी कौवे की दाईं आंख में दोष पाया जाता है।
प्रभु श्री राम जब भी क्रोधित हुए उसके पीछे कोई न कोई बहुत बड़ा कारण अवश्य रहा। मर्यादापुरुषोत्तम ने धर्म और कर्तव्य पालन के दौरान बाधा आने पर ही क्रोध प्रकट किया। इसका आशय यही है कि धर्म स्थापना व कर्तव्य पालन में आने वाली बाधा सर्वथा अस्वीकार्य है।