इस्कान के संस्थापक आचार्य परमपूज्यपाद नित्यलीलाप्रविष्ट श्री श्रीमद् भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज जी ने लिखा है कि आध्यात्म रामायण के 1-15 अध्याय में वर्णन आता है कि भगवान श्रीराम त्रेतायुग में जब इस पृथ्वी पर लीला कर रहे थे तब उनके राज्य में एक भक्त ब्राह्मण रहता था।
उसका नियम था कि वह प्रतिदिन श्रीराम को प्रणाम करने आता था। प्रणाम करने के उपरान्त ही वह कुछ खाता था। जब कभी श्रीराम के दर्शन न होते तो उस दिन उपवास करता था। कई बार ऐसा होता था कि भगवान भ्रमण हेतु राज्य से बाहर जाते, तो वह ब्राह्मण उस दिन कुछ नहीं खाता था और तब तक नहीं खाता था जब तक उसे श्रीराम के दर्शन न हो जाएं।
भक्त-भगवान की लीला है और भगवान परीक्षा तो लेते ही हैं। पतितपावन श्रीश्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी कहते हैं कि जैसे लुहार अपना औज़ार बनाने से पहले लोहे को आग की भट्टी में लाल करता है, फिर उसे तब तक हथौड़ों से पीटता है जब तक वह उसे अपने औज़ार के रूप में तबदील न कर ले, उसी प्रकार भगवान भी किसी जीव अथवा प्राणी को अपनी नित्य सेवा में लेने से पहले कष्ट-रूपी थपेड़ों से उसे लाल करते हैं व बदनामी, इत्यादि की मार से अपने अनुसार ढालते हैं।
इसी कारण से भगवान श्रीराम उस ब्राह्मण की परीक्षा लेते रहे। अगर वे नौ दिन के लिये राज्य से बाहर जाते तो वो ब्राह्मण नौ दिन बिना कुछ खाये-पीये बिताता। किसी ने ठीक ही लिखा है – ‘भक्त प्रेम के पाले पड़कर प्रभु को नियम बदलते देखा, अपना मान टले टल जाये, भक्त का मान न टलते देखा।’
अन्ततः प्रभु पसीजे। ब्राह्मण का तप देखकर उन्होंने लक्ष्मण जी को कहा कि वे उस ब्राह्मण को श्रीराम व सीताजी की श्रीमूर्ति दे दें। ब्राह्मण वह श्रीमूर्ति प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुआ। अन्त समय तक वह उन मूर्तियों के रूप में भगवान श्रीसीता-राम जी की सेवा-अर्चना करता रहा। अपना अन्त समय निकट आया देख उसने वो श्रीमूर्ति श्री हनुमान जी को दे दीं।
श्री हनुमान जी उन मूर्तियों को एक झोले में रख कर तथा उसे अपने गले में लटका कर घूमते थे व समय-समय पर उन विग्रहों की सेवा-अर्चना करते थे। जब उन्होंने गन्ध-मादन पर्वत पर जाने का निश्चय किया तो उन्होंने वो विग्रह अर्जुन के बड़े भाई भीम को दे दिये। भीम ने उन्हें अपने महल के मन्दिर में रखा व स्वयं पूजा-अर्चना करने लगे। पाण्डवों के वशंज क्षेमकान्त जी ने उन विग्रहों की पूजा-अर्चना की। फिर कालक्रम से वो विग्रह ओड़ीसा के राजा गजपति के यहां आये। जहां से श्रीमध्वाचार्यजी के शिष्य श्रीनरहरि तीर्थजी ने उन्हें प्राप्त किया। वो विग्रह श्रीराम के प्राकट्य से पहले राजा इक्ष्वाकु द्वारा पूजित थे। श्री लक्ष्मण जी ने उन विग्रहों (श्रीमूर्ति) की पूजा की थी। वो विग्रह अभी भी उडूपी में पूजित हैं।