प्राचीन काल में लोग दिशा ज्ञान के लिए ध्रुव तारे को आधार मानते थे जो वैज्ञानिक रूप से भी यह सही लगता है। ध्रुव तारा ठीक उत्तर में हैं और इसका नाम ध्रुव इसलिए है कि यह अडिग है, स्थिर है, इसमें विचलन नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी के उत्तरी मध्य बिंदु उत्तरी ध्रुव से एक सीधी रेखा उत्तर की ओर ही खींचते चले जाएं तो यह सीधे ध्रुव तारे पर जाकर मिलेगी। यानि कि घूमती पृथ्वी का उत्तरी बिंदु सीधे ध्रुव तारे की सीध में रहते हैं।
यह तो सब जानते हैं कि उत्तर की ओर से चुंबकीय तरंगों का प्रवाह सतत दक्षिण की ओर बहा करता हैं। वास्तु में इसलिए उत्तर दिशा को कुबेर का स्थान कहते हैं। क्योंकि इसी ओर से सदा तरंगों का आबाद आगमन होता हैं। इन तरंगों के उचित उपयोग के सिद्धांत ही वास्तु शास्त्र के मूल आधार हैं। उत्तर जीवन की दिशा है, स्थायित्व की दशा हैं। हमारे ऋषियों ने उत्तर को कुबेर और दक्षिण को यम की दिशा बतलाया है। उत्तर को जीवन और दक्षिण को मृत्यु या उत्तर को आगमन और दक्षिण को निगमन की दिशा बताया हैं।
कंपास बेहद जरुरी
दिशाओं का निर्धारण उत्तर से होना चाहिए। इसके लिए दिशा बोधक यंत्र या कुतुबनुमा (कंपास) का प्रयोग करना चाहिए। कंपास की सुई उत्तर दिशा में रहती हैं क्योंकि वह उत्तर से आती हुई ऊर्जा तरंगों से आकर्षित रहती हैं। इस दिशा सूचक यंत्र के किसी भी भूखंड की चारों दिशाओं और चारों कोणों का ज्ञान आसानी से हो जाता हैं। भूखंड की दिशाओं को ज्ञात करना हो, उस भूखंड के मध्य में एक कंपास रख दीजिए। कंपास के तीर के आकार की सुई उत्तर दिशा की ओर ही होगी, इसे देखकर आप उस भूखंड के उत्तर-दक्षिण एक रेखा खींच दीजिए, इससे आपका भूखंड दो बराबर भागों में बंट जाएगा।
वास्तु में खुला स्थान भी लें कुछ लोगों को यह शंका होती है कि निर्मित भवन पर ही वास्तु को प्रभावी माना जाए या भवन के आगे पीछे जो लॉन, बगीचा या चहारदीवारी के अंदर छूटा हुआ जो स्थान है, उस पर प्रभावी न माना जाए। यह भ्रांति मात्र है। वास्तु में दिशा निर्धारण और पद विन्यास पूरी चहारदीवारी का ही होता है। इसमें निर्माण किए जाने वाला क्षेत्र और चहारदीवारी के अंदर का छूटा हुआ क्षेत्र दोनों शामिल हैं, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। अमूमन देखा यह गया है कि उचित ज्ञान या मार्ग दर्शन के अभाव में लोगों को इस संदेह के कारण बहुत असुविधा उठानी पड़ी, क्योंकि यह वास्तु शास्त्र का प्रारंभिक अनिवार्य बिंदु है, जिसके गलत होने पर आगे के सारे सिद्धांत अर्थहीन हो जाते हैं।