उभरती बुराई ने दबती सी अच्छाई से कहा, कुछ भी हो, लाख मतभेद हों, पर है तू मेरी सहेली। मुझे अपने सामने तेरा दबना अच्छा नहीं लगता। अलग खड़ी न हो मुझमें मिल जा। मैं तुझे भी अपने साथ बढ़ा लूंगी, समाज में फैला लूंगी।
भलाई ने शांति से उत्तर दिया, तुम्हारी हमदर्दी के लिए धन्यवाद, पर रहना मुझे तुमसे अलग ही है।Ó
क्यों? आश्चर्य भरी अप्रसन्नता से बुराई ने पूछा।
अच्छाई ने और भी शांत होकर जवाब दिया। बात यह है कि मैं तुमसे मिल जाऊं तो फिर मैं कहां रहूंगी? तब तो तुम ही तुम होगी सब जगह।
गुस्से से उफनकर बुराई ने अपनी झाड़ी अच्छाई के चारों ओर फैलाकर जकड़ लिया और फुंकारकर कहा, ले, भोग मेरे निमन्त्रण को ठुकराने का नतीजा! अब पड़ी रह मिट्टी में मुंह दुबकाए, दुनिया में तेरे फैलने का अब कोई मार्ग नहीं।
अच्छाई ने अपने नन्हे अंकुर की आंख से जहां भी झांका उसे बुराई की जकड़ बंध, झाड़ी के तेज कांटे, भाले के समान तने हुए दिखाई दिए।
फिर भी पूरे आत्मविश्वास से अच्छाई ने कहा, तुम्हारा फैलाव बहुत व्यापक है, बहिन, इस फैलाव से अपने अस्तित्व को बचाकर मुझे वृद्धि और प्रसार पाने में पूरा संघर्ष करना पड़ेगा, पर तुम यह न भूलना कि कांटे-कांटे के बीच से गुजर कर जब मैं तुम्हारी झाड़ी के ऊपर पहुंचूंगी तो मेरे कोमल फूलों की महक चारों ओर फैल जाएगी, तब तेरा अस्तित्व ओझल ही रहेगा।
बुराई गंभीर हो गई और उसे लगा कि उसके कांटों की शक्ति स्वयमेव पहले से कम होती जा रही है और अच्छाई का अंकुर तेजी से वृद्धि पा रहा है।