क्यों भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को शांति और अर्जुन को युद्ध की सलाह दी थी ?

जीवन और व्यवहार का सत्य तो नाट्यशाला का ही सत्य है किंतु जो व्यवहार जगत से ऊपर उठकर विचार और मुक्ति में जीवन की सार्थकता मानते हैं वे पर्दे की आड़ में छिपे हुए सूत्रधार की ओर दृष्टि डालते हैं। इससे उनका अंतकरण राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। किंतु यह विचार जगत की व्यक्तिगत अनुभूति के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

 महाभारत में काल की अनिवार्यता का प्रतिपादन बार-बार किया गया है। काल की इस अनिवार्यता के प्रतिपादन से मनुष्य के अंत:करण में निरुपायता का बोध होता है। लगता है कि व्यक्ति के सारे प्रयत्न व्यर्थ है। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या काल ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी है, जो ईश्वर की सृष्टि को अपनी इच्छा के अनुरूप चलाने की चेष्टा करता है? क्या उसकी यथेच्छाचारिता को रोकने की क्षमता ईश्वर में नहीं है? गीता में अर्जुन पूछते हैं कि ‘न चाहते हुए भी व्यक्ति पाप की ओर क्यों प्रवृत्त होता है, ऐसा लगता है कि जैसे कोई बलपूर्वक पाप की दिशा में ले जाने की चेष्टा करता है।’ तो भगवान श्रीकृष्ण इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि काम और क्रोध व्यक्ति को पाप की दिशा में ले जाते हैं। इन महाशत्रुओं का वध किया जाना चाहिए

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।।

किंतु एक स्तर ऐसा आता है, जहां वे कहते हैं कि ईश्वर ही सबकी अंतरात्मा में बैठा हुआ उन्हें कठपुतली की तरह नचा रहा है:

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। गीता/१८/६१

इन दोनों प्रकार की विचारधाराओं में परस्पर विसंगति-सी प्रतीत होती है, पर भिन्न स्तरों पर विचार करने पर इस विरोधाभास का सामंजस्य मिल जाता है। इसे रंगमंच पर किए जाने वाले नाटक के माध्यम से हृदयंगम किया जा सकता है। नाट्य-मंच पर नायक और खलनायक परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं और दर्शक के लिए इस विरोध को वास्तविक माने बिना नाट्य-रस की अनुभूति नहीं हो सकती, पर नाट्य-मंच के पीछे का सत्य इससे भिन्न है। वहां देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि नायक और खलनायक सूत्रधार की इच्छा के द्वारा ही संचालित होते हैं।

जीवन और व्यवहार का सत्य तो नाट्यशाला का ही सत्य है, किंतु जो व्यवहार जगत से ऊपर उठकर विचार और मुक्ति में जीवन की सार्थकता मानते हैं, वे पर्दे की आड़ में छिपे हुए सूत्रधार की ओर दृष्टि डालते हैं। इससे उनका अंत:करण राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। किंतु यह विचार जगत की व्यक्तिगत अनुभूति के रूप में ही देखा जाना चाहिए। व्यवहार में इसकी स्वीकृति जटिलताओं की सृष्टि करती है। महाभारत और गीता में भी भगवान दो भिन्न भूमिकाओं में दिखाई देते हैं। एक ओर वे कर्तव्याकर्त्तव्य का निरूपण करते हैं, व्यक्ति को पाप के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा देते हैं।

स्वयं दूत के रूप में पापमय दुर्योधन को युद्ध से विरत होने का उपदेश देते हैं। पर दूसरी ओर वे अर्जुन के समक्ष अपने विराट रूप को प्रकट करते हुए अपना परिचय काल के रूप में देते हुए यह स्वीकार करते हैं कि वे काल के रूप में सबका संहार करने पर तुले हुए हैं- कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। यहां काल ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी नहीं है, वह तो स्वयं ईश्वर ही है। जहां प्रयत्न करते हुए हमें श्रीकृष्ण के उपदेशों से प्रेरणा लेनी चाहिए, वहीं प्रयास की असफलता में हमें काल-रूप ईश्वर का साक्षात्कार करना चाहिए। इसे जीवन और मृत्यु के दो छोरों के रूप में देखा जा सकता है।

कर्तव्य और निर्माण में व्यक्ति की प्रवृत्ति तभी हो सकती है, जब वह जीवन की चैतन्यता और नित्यता पर विश्वास करे। इसीलिए यह कहा जाता है कि विद्या और अर्थ के संदर्भ में व्यक्ति को प्रयत्न स्वयं को अजर-अमर मानकर करना चाहिए। फिर भी जीवन का दूसरा छोर उससे कम सत्य नहीं है। मृत्यु अनिवार्य और अपरिहार्य है। मृत्यु के क्षणों में अनित्यता का बोध ही व्यक्ति के अंत:करण को प्रशांत बना सकता है। पर उचित अवसर पर ही इन दोनों विरोधी प्रवृत्तियों की सार्थकता है।

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