देवों के देव महादेव की पूजा में शिव तांडव स्तोत्र (Shiv Tandav Stotram) का पाठ किया जाता है। इससे प्रभु प्रसन्न होते हैं और जातक को सुख-शांति की प्राप्ति होती है। क्या आपको पता है कि आखिर शिव तांडव स्तोत्र की रचना क्यों और किसने की थी? अगर नहीं पता तो आइए जानते हैं इसके बारे में विस्तार से ।
सनातन धर्म में पूजा-पाठ करने का अधिक महत्व है। इस दौरान साधक प्रभु को अलग-अलग तरह के भोग लगाते हैं और सुंदर वस्त्र पहनाते हैं। इसके अलावा मंत्र और स्तुति का पाठ करते हैं। धार्मिक मान्यता है कि इन कार्यों को करने से पूजा सफल होती है और इंसान के जीवन में खुशियों का आगमन होता है। सभी देवी-देवताओं में भगवान शिव को सबसे उच्च स्थान प्राप्त है।
ऐसे हुई शिव तांडव स्तोत्र की रचना
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार लंकापति रावण ने भगवान शिव को कैलाश पर्वत सहित उठा कर लाने का निर्णय किया। इसके बाद जब वह कैलाश पर्वत की ओर बढ़ा, तो नंदी ने उन्हें रोक दिया और कैलाश पर्वत की सीमा को पार करने के लिए मना कर दिया और कहा कि भगवान महादेव तपस्या कर रहे हैं और ऐसे में उनकी तपस्या में बाधा डालने का आप प्रयास न करें। नंदी के द्वारा मना करने पर रावण क्रोधित होकर सीमा पार कर दी और कैलाश पर्वत को उठाया तो भगवान शिव ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया और रावण उस पर्वत के नीचे दब गया। इसके पश्चात रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए जो स्तुति की थी, उसे शिव तांडव स्तोत्र कहा जाता है। मान्यता है कि जिस स्थान पर रावण दबा था। उसे राक्षस ताल कहा जाता है।
शिव तांडव स्तोत्र पाठ का महत्व
शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और जातक की सभी मनोकामनाएं जल्द पूरी होती हैं। इसके साथ ही शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करने से कुंडली में शनि ग्रह का दुष्प्रभाव कम होता है। पितृ दोष से मुक्ति पाने के लिए शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करना बेहद कल्याणकारी माना गया है।
शिव तांडव स्तोत्र
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ।।
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ।।
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे(क्वचिच्चिदम्बरे) मनो विनोदमेतु वस्तुनि ।।
जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ।।
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ।।
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ।।
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ।।
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ।।
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ।।
अगर्व सर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ।।
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ।।
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रव्रितिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम ।।
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ।।
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदङ्गजत्विषां चयः ।।
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ।।
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ।।
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः ।।