वरुथिनी एकादशी के दिन करें गजेंद्र मोक्ष का पाठ

वरुथिनी एकादशी के दिन भक्त विष्णु जी के लिए व्रत रखते हैं और तामसिक चीजों का त्याग करते हैं। साल में कुल 24 एकादशियां मनाई जाती हैं जिनमें से दो प्रत्येक माह शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के दौरान मनाई जाती है। वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को वरुथिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है जो आज यानी 4 मई 2024 को मनाई जा रही है।

वरुथिनी एकादशी का दिन हिंदू परंपरा में एक पवित्र दिन माना जाता है, जो वैशाख महीने में आता है। यह विशेष दिन भगवान विष्णु की पूजा के लिए समर्पित है। इस दिन भक्त विष्णु जी के लिए व्रत रखते हैं और तामसिक चीजों का त्याग करते हैं। साल में कुल 24 एकादशियां मनाई जाती हैं, जिनमें से दो प्रत्येक माह शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के दौरान मनाई जाती है। वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को वरुथिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है, जो आज यानी 4 मई, 2024 को मनाई जा रही है।

ऐसा कहा जाता है, जो लोग इस दिन गजेंद्र मोक्ष का पाठ करते हैं उन्हें हर प्रकार की मुश्किलों से छुटकारा मिलता है। इसलिए आज के दिन इस स्तोत्र का पाठ अवश्य करें, तो चलिए यहां पढ़ते हैं –

।।गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र।।

श्री शुक उवाच

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।

जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥

ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।

पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।

योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥

कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।

तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम।

यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।

चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥

न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा।

तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यःस्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥

तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये।

अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥

नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।

नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।

नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।

निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।

पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।

असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥

नमो नमस्ते खिल कारणायनिष्कारणायद्भुत कारणाय।

सर्वागमान्मायमहार्णवायनमोपवर्गाय परायणाय॥

गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपायतत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय।

नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।

स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।

मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।

किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥

एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।

अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलंगायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।

अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।

नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥

यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः।

तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।

नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः॥

जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।

इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥

सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।

विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥

योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।

योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।

प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।

तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥

श्री शुकदेव उवाच

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषंब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।

नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।

छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥

सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।

उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।

ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥

गजेन्द्रो भगवत्स्पर्शाद् विमुक्तोऽज्ञानबंधनात् ।

प्राप्तो भगवतो रुपं पीतवासाश्र्चतुर्भुजः ।।

एवं विमोक्ष्य गजयुथपमब्जनाभः ।।।

स्तेनापि पार्षदगति गमितेन युक्तः ॥

गंधर्वसिद्धविबुधैरुपगीयमान-

कर्माभ्दुतं स्वभवनं गरुडासनोऽगात् ॥

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