कृष्ण ने धरा गौरांग रूप, चैतन्य महाप्रभु की जयंती पर जानिए उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण बातें!

श्री चैतन्य महाप्रभु और मेरे प्राणधन श्री राधारमण देव में कोई अंतर नहीं है। हम श्री राधा रमणीय गोस्वामी एक ही बात जानते और मानते हैं – राधा रमण छांड़ि अमि और किछु जानी ना अर्थात राधारमण को छोड़कर हम कुछ और जानते ही नहीं हैं और श्री गौरांग महाप्रभु चैतन्य ही श्री राधारमण देव हैं। श्रीमद्भागवत की कथा में जिस प्रकार श्रीकृष्ण का विग्रह बनता है, उसी प्रकार श्री चैतन्य चरितामृत में साक्षात चैतन्य महाप्रभु का विग्रह अवतरित होता है।

दहकते कुंदन सा तन, उन्नत ललाट, सर्वत्र कृष्ण को देखने वाली प्रेमोदधि में कमलवत खिले नेत्र, अधरों पर अनुराग का रंग, हृदय में प्रियतम से मिलने की लगन, अजानुबाहुओं में समस्त संसार को समेटने का सामर्थ्य, चरणों में लक्ष्य प्राप्त करने का अदम्य उत्साह और आपादमस्तक प्रत्येक रोम से फूटती कृष्णनाम की अनवरत धुन, यही सब कुछ मिलकर बने हैं हमारे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु।

प्रेम के अनुराग की लालिमा

चैतन्य महाप्रभु पर एक पद है- गोपिन के अनुराग आगे आप हारे श्याम। जान्यो ये लाल रंग कैसे आवे तन में।। जब श्रीकृष्ण ने उन गोपांगनाओं के उस प्रेमयुक्त सुंदर स्वरूप का दर्शन किया तो कहते हैं कि त्रिभुवन सुंदर कृष्ण का भी मन ललचा गया कि यह प्रेम का रंग हम पर भी चढ़ना चाहिए। प्रेम की भूख तो भगवान को भी है। प्रेम का लोभ भगवान को भी है, जब गोपांगनाओं में कृष्णानुराग युक्त भाव नेह का जब भगवान दर्शन करते हैं। कृष्ण के मन में लालसा हुई प्रेम के अनुराग की लालिमा की।

जब श्रीकृष्ण ने गोपांगनाओं को अंगीकार किया, तब गोपांगनाओं के प्रेम अनुराग की लालिमा जैसी गौरांग पर सुंदर लगती है, वह श्याम रंग पर उभर नहीं पाती। इसलिए ठाकुर जी कहते हैं कि हमें संतोष नहीं हुआ, इसलिए इस बार गौरांग लेकर प्रकट हुए।

गागर में सागर

सर्वधर्म समभाव और सांप्रदायिक सौहार्द के स्वप्न को साकार करने वाले सर्जक थे गौरहरि चैतन्य महाप्रभु। आत्मा पर पड़े माया के आवरण को दग्ध कर परमात्मा की साक्षात सत्ता से समुदाय को परिचित कराने वाले पहले दिग्दर्शक। कृष्ण के आकर्षण से मानव मात्र को एक सूत्र में पिरोने वाले अप्रतिम अन्वेषक। इष्ट के कीर्तिगान से, संकीर्तन से समाधि की दुरूह यात्रा करने वाले पथिक प्रेमी श्री चैतन्य महाप्रभु की भक्ति धारा का संपूर्ण सूत्र उनके शिक्षाष्टक में ही विद्यमान है।

भक्तिमार्ग, धर्मपथ, भजन प्रणाली तथा साधन साध्य तत्व संक्षेप में जैसे गागर में सागर भर दिया हो। श्री चैतन्य महाप्रभु शिक्षा देते हैं कि घास के तिनके से भी अधिक विनम्र और वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर अपने अभिमान को त्यागकर दूसरों को सम्मान देते हुए सर्वदा हरि संकीर्तन करते रहना चाहिए।

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