प्रतिवर्ष माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भीष्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन महाभारत के चर्चित पात्र भीष्म पितामह ने इच्छा से अपनी देह का त्याग किया था। इसलिए यह दिन उनका निर्वाण दिवस भी कहलाता है। महाराजा शांतनु तथा देवी गंगा के पुत्र भीष्म का नाम देवव्रत था। देवव्रत की शिक्षा और लालन-पालन इनकी माता के पास ही हुआ। इन्होने महर्षि परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की। दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने इनको बहुत सी शक्तियां प्रदान की जिसके कारण देवव्रत युद्धकला में निपुण हुए । इनकी सभी शिक्षाएं पूर्ण होने पर माता गंगा ने इन्हें हस्तिनापुर के राजा शांतनु के पास भेज दिया।राजा शांतनु ने अपने पुत्र को राज्य का युवराज बना दिया।
एक बार राजा शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगा तट के पार निकल गए,वहाँ से लौटते वक्त उनकी मुलाक़ात हरिदास केवट की पुत्री ‘मत्स्यगंधा'(सत्यवती) से हुई जो अति सुन्दर थीं । शांतनु उस पर मोहित हो गए और उन्होंने मत्स्यगंधा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा । हरिदास ने अपनी पुत्री का विवाह करने से पूर्व राजा के सम्मुख एक शर्त रखी,कि देवी सत्यवती की होने वाली संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी बनेगी । यह शर्त राजा को स्वीकार नहीं थी । परन्तु राजा मत्स्यगंधा की याद में व्याकुल रहने लगे । एक दिन जब देवव्रत को पिता के दुखी रहने का कारण मालूम हुआ तो गंगाजल हाथ में लेकर उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की अखंड प्रतिज्ञा ली । देवव्रत की इसी भीषण प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम ‘भीष्म’ पड़ा तथा राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को इच्छित मृत्यु का वरदान दिया । न्याय और सत्य के मार्ग पर चलते हुए भीष्म ने अपना जीवन हस्तिनापुर के लिए समर्पित कर दिया।
धर्म ग्रंथों के अनुसार योद्धा भीष्म को राजनीतिक कारणों की वजह से पाँचों पांडवों के विरुद्ध युद्ध करना पड़ा । शिखंडी पर शस्त्र न उठाने की अपनी प्रतिज्ञा को निभाने के कारण उन्होंने युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग दिए । तब शिखंडी की आड़ में अर्जुन ने उनको अपने बाणों से भेद डाला । घायल अवस्था में जब भीष्म भूमि पर गिरे तो उनका मुख पूर्व की तरफ था । तब उन्होंने देखा कि सूर्यनारायण तो अभी दक्षिणायन हैं । इस काल में वे मृत्यु का वरण नहीं करना चाहते थे । महाभारत के इस महान योद्धा ने वाणों की शैय्या पर शयन किया। इसीलिए कहा जाता है कि सूर्य दक्षिणायन होने के कारण शास्त्रीय मतानुसार भीष्म ने अपने प्राण नहीं त्यागे और सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। ।
स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने भी उत्तरायण का महत्त्व बताते हुए गीता में कहा है कि -‘उत्तरायण के छह मास के शुभकाल में जब सूर्यदेव उत्तरायण होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता,ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । इसके विपरीत सूर्य के दक्षिणायन होने पर पृथ्वी अंधकारमय होती है और इस अन्धकार में शरीर का त्याग करने पर पुनर्जन्म लेना पड़ता है ।’
भीष्म अष्टमी का व्रत रखने से जाने-अनजाने में किए गए पाप नष्ट होते हैं साथ ही पितृ दोष से मुक्ति और पितरों को शांति मिलती है । संतान की कामना रखने वाले दंपति को योग्य संतान की प्राप्ति होती है। इस दिन भीष्म पितामह के निमित्त जो मनुष्य कुश,तिल,जल के साथ तर्पण करता है और गरीबों को ज़रुरत की वस्तुएं दान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। माना जाता है कि भीष्म ने अर्जुन को लोककल्याण की भावना से वरदान दिया था कि यदि कोई व्यक्ति पाप का अन्न खा ले, उसका मन मलिन हो जाए तो मेरे दर्शन मात्र से वह निर्मल हो जाएगा।