प्राचीन काल की कई कहानियां ऐसी हैं जिनके बारे में हम नहीं जानते हैं। इनमें कई कहानियां ऐसी होती हैं जिनसे हमें प्रेरणा मिलती है तो कई ऐसी होती हैं जो व्यक्तियों के संवाद पर आधारित होती हैं। आज की पौराणिक कथा भी कुछ ऐसी ही है। जैसा कि हम सभी जानते हैं महिलाएं हमेशा से ही वाचाल प्रवृति की होती हैं। साथ ही उन्हें बोलना कितना पसंद होता है। वाक चातुर्य में तो कोई इन्हें हरा ही नहीं सकता है। इसे लेकर एक श्लोक भी है जो कुछ इस प्रकार है। यह शंकर-पार्वती का संवाद है। इस संवाद में शंकर जी अपनी पार्वती जी के सामने निरुत्तर हो गए थे।
कस्त्वं?शूली, मृगय भिषजं, नीलकंठ: प्रियेऽहं केकोमेकां वद, पशुपतिर्नेव दृष्ये विषाणे।
मुग्धे स्थाणु:, स चरति कथं? जीवितेश: शिवाया गच्छाटव्यामिति हतवचा पातु वश्चन्द्रचूड: ।।
शंकर जी ने अपने घर का द्वार खोलने के लिए पार्वती जी को आवाज दी। पार्वती जी ने पूछा की तुम कौन हो। इस पर शिवजी ने कहा कि मैं शूली (त्रिशूल धारी) हूं। फिर पार्वती जी ने सवाल का बाण छोड़ दिया और पूछा कि शूली हो तो वैद्य के पास जाओ। बता दें कि शूली का अर्थ शूल रोग से पीड़ित भी होता है। फिर शिवजी ने कहा, “प्रिये! मैं नीलकंठ हूं।” तब पार्वती जी ने मयूर अर्थ में कहा कि एक बार केका ध्वनि कर के दिखाओ। फिर शंकर जी ने कहा मैं पशुपति हूं। इस पर भी पार्वती जी के पास जवाब मौजूद था। उन्होंने कहा कि पशुपति हो तो तुम्हारे सिंग दिखाई क्यों नहीं दे रहे। बता दें कि पशुपति का अर्थ बैल भी होता है।
फिर शिव जी ने कहा, “मुग्धे! मैं स्थाणु हूं।” तब गौरी बोलीं स्थाणु चलता कैसे है। बता दें कि स्थाणु का अर्थ ठूंठ भी होता है। फिर भोलेनाथ ने कहा कि मैं शिवा हूं। पार्वती का पति हूं। इस पर पार्वती जी बोलीं कि अगर तुम शिवा के पति हो तो जंगल में जाओ। बता दें कि शिवा का अर्थ लोमड़ी भी होता है। और इसी संवाद में शिव जी पार्वती के सामने निरुत्तर हो गए थे।