होली का त्यौहार सिर्फ रंग-गुलाल से ही नहीं पहचाना जाता है बल्कि इसके शास्त्रोक्त विधि-विधान है। माघ पूर्णिमा के दिन एक महिने पहले एक विशेष मुहूर्त में गुलर वृक्ष की टहनी को गांव या शहर के किसी खुली जगह या चौराहे पर लगाया जाता है। इसको होली का डंडा गाड़ना भी कहते हैं। होलिका दहन से पहले होली का श्रंगार किया जाता है। गोबर के उपलों और लकड़ियों को इसके आसपास इकट्ठा किया जाता है। इसके लिए महिलाएं घरों में भी तैयारियां करती है। गोबर के बिड़कले होली में जलाने के लिए तैयार किए जाते हैं। इनकी माला बनाई जाती है और इनको होली में दहन किया जाता है। होली में जो डंडा गाड़ा जाता है उसको भक्त प्रह्लाद का प्रतीक मानकर उसको तालाब, नदी आदि में विसर्जित करने का भी विधान है।
होली पूजा विधि
होलिका दहन से पहले उसकी विधि-विधान से पूजा की जाती है। इसके लिए एक कलश में गंगाजल या कोई पवित्र जल लिया जाता है। रोली, अक्षत, हल्दी, मेंहदी, अबीर, गुलाल, मौली, धूप, दीप, फूल, कच्चे सूत का धागा, साबूत हल्दी, मूंग, बताशे, नारियल एवं नई फसल के अनाज गेंहू की बालियां, पके चने आदि से पूजा की जाती है। होलिका में गोबर से बनी ढाल रखी जाती है। चढ़ाई जाने वाली मालाओं में पहली पितृों के लिए, दूसरी हनुमान जी के लिये, तीसरी शीतला माता, और चौथी घर परिवार की समृद्धि के लिए समर्पित की जाती है। होलिका के चारों तरफ तीन या सात परिक्रमा करते हुए कच्चे सूत के धागे को लपेटा जाता है। पूजा के लिए लाई सामग्री को भक्तिभाव के साथ होलिका में समर्पित किया जाता है। यानी होलिका में इन सभी वस्तुओं की आहूति दी जाती है।
होली की राख से मिलती है समृद्धि
अगले दिन धूलेंडी पर सूर्योदय से पूर्व उठकर पितृों और देवताओं को तर्पण देने का विधान है। होलिका दहन के बाद उसकी राख को घर लाकर रखना चाहिए, साथ ही उस राख को शरीर पर भी लगाना चाहिए। घर के आंगन नें एक मंडल का निर्माण कर पूजा करना चाहिए। प्राचीन काल में घर को गोबर से लीपा जाता था अब घर को धोकर स्वच्छ कर सकते हैं। इसके बाद प्रकृतिक रंगों के साथ अपने परिजनों और मित्रों के साथ धूलेंडीं का पर्व मनाया चाहिए।