गाय स्वभाव, संस्कार और उपस्थिति से मनुष्य के सर्वाधिक निकट है। जो सरलता, अनाक्रमकता, आत्मीयता उसके स्वभाव में देखने को मिलती है, वह मनुष्य में भी दुर्लभ है। मां का दूध न मिलने पर किसी भी मनुष्य के शिशु का पोषण पहले दिन से गाय के दूध पर किया जा सकता है। शुरु दिन से मनुष्य ने गाय को मां कह कर पुकारा तो वह अकारण नहीं है।
यह अनूठा तथ्य है कि मनुष्य ने अपनी जननी और माता को मां कहना गाय के बछड़े से ही सीखा। गाय का बछड़ा अपनी मां को देख कर जिस तरह पुकारता है, वह ध्वनि मां या म्हा जैसी सुनाई देती है। संसार की अधिकांश भाषाओं मे बच्चा (और बड़ा होने पर भी) अपनी मां को मां, म्हा, मातृ, मदर, मादर, मम्मी आदि संबोधनों से ही पुकारता है।
यह गाय के बछड़े द्वारा किए गए स्वर संबोधन के आसपास ही है। मां और शिशु के स्नेह संबंध को जो संज्ञा दी गई है, वह गाय और बछडे़ के संबंध को व्यक्त करती है। इस शब्द में स्नेह, संरक्षण और पोषण के कई तत्व निहित है।
गाय के दैवी और आध्यात्मिक स्वरूप को अलग और विभिन्न रूपों में निरूपित किया जा सकता है। उक्त उदाहरण सिर्फ गाय के मानवीय महत्व को व्यक्त करते हैं। वेद शास्त्रों और कला साहित्य संस्कृति के विभिन्न रूपों में गाय के प्रति अहोभाव व्यक्त हुआ है। यों प्रकृति का कण-कण हमें देता है।
इसीलिए कण-कण में देवाताओं का निवास माना है। लेकिन इस प्राकृतिक संरचना में गाय को हमने विशेष दर्जा दिया है। उसे कामधेनु, गौ माता माना है। वह हमें दूध, दही, घी, गोबर-गोमूत्र के रूप में पंचगव्य प्रदान करती है। इन पंचतत्वो का पोषण और इनका शोधन गोवंश से प्राप्त पंच गव्यों से होता है।
गाय प्रकृति की माता है। वह गोबर से धरती को उर्वरा बनाती है। जल और वायु का शोधन करती है।अग्नि व ऊर्जा प्रदान करती है। गोबर,� गाय का वर है। गोबर में धन की देवी लक्ष्मी का निवास बताया गया है।
इसी प्राकृतिक देन से भारत सोने की चिड़िया बना। आज हमारी जीवन शैली बदल गई है। इससे हमारी आर्थिक स्थिति पर असर पड़ा। हमारी ग्रामीण सभ्यता धीरे-धीरे शहरीकरण के प्रभाव में आती गई तो ग्राम आधारित खेती, गो धन पर भी उसका असर हुआ।
अगर प्राकृतिक वैदिक वैद्य परंपरा पर शोध किया जाए तो स्वस्थ दुनिया की कल्पना कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसा कोई रोग नहीं जिसमें पंचगव्य से चिकित्सा नहीं की जा सकती।