अटलांटिक महासागर में गोताखोरों ने समुद्र की तलहटी में कुछ ऐसे खंडहर और संरचनाएं देखी हैं, जिनसे लगता है कि पहले वहां कोई द्वीप था, जो भारी विप्लव के कारण समुद्र के गर्भ में समा गया।
रूस और चीन के बीच गोवी रेगिस्तान के बारे में कहते हैं कि वहां पहले समुद्र था। कभी प्रकृति में उथल पुथल हुई और जल सिमट कर एक ओर चला गया। वहां पृथ्वी निकल आई और कालातंर में वहां रेगिस्तान में बदल गई।
शतपथ ब्राह्मण तथा सूर्य सिद्धान्त आदि प्राचीन ग्रंथो में प्रलय की गणनाएं दी गईं हैं। उस आधार पर और प्रचलित हिसाब से अनुमान लगाना तो कठिन है, लेकिन यह तय है कि पृथ्वी में कभी-कभी अग्नि, हिम या जल प्रलय जैसी उथल पुथल और विनाश होते रहे हैं। ऐसी कितनी ही उलट फेर या संघातों के बारे में भूगर्भवेत्ता और इतिहासवेत्ता भी बताते रहे हैं।
भागवत पुराण में ऐसी ही एक जल प्रलय का विवरण है। उसमे बताया है कि तब एक मात्र मार्कण्डेय मुनि बचे थे। उन्होंने प्रकृति की भीषणतम विनाश लीला देखी तो आंखें ही मूंद ली। उन्हें तब ज्ञान और बुद्धि वर्चस्व के सारे अहंकार को भुलाकर अपने आपको ईश्वरीय शक्तियों के सामने समर्पित करना पड़ा।
प्रलय प्रकृति का एक समर्थ शस्त्र है, जिसका उपयोग वह परिवर्तन के लिए करती है। शायद यह सिखाने के लिए कि मनुष्य अपने आपको सर्व-समर्थ समझता है तो यह उसकी भारी भूल है। अनुभव करना चाहिए कि इस विशाल ब्रह्माण्ड में केवल देव-शक्तियों का आधिपत्य है।
यह शक्तियां ही सृष्टि का संचालन करती हैं। मनुष्य उस परिवर्तन को किसी भी तरह रोक नहीं सकता। वह अपने आपको इन परिवर्तनों के अनुकूल ढाल कर अपने भीतर शांति और संतुलन जरूर साध सकता है।