दक्षिण भारत के चिन्नई तमिलनाड़ु राज्य में स्थित है कपलेश्वर मंदिर जो बहुत ही प्रसिद्ध है भगवान शिव का यह मंदिर लगभग 1250 ईस्वी पूर्व में बनाया गया है. हर रोज हजारों की तादात में भक्तों की भीड़ दर्शन के लिए एकत्रित होती है .और महा शिवरात्रि पर्व पर तो यहां भक्त लाखों की तादात में दर्शन करने आते हैं. इस दिन यहां आकर दर्शन करने मात्र से भक्तों के बिगड़े कार्य बन जाते है .
हजारों वर्षों पुराना यह मंदिर समुद्र तल पर पूर्ण रूप से समा चुका था। बाद में यह मंदिर पुनः नवनिर्मित किया गया । किस तरह भक्त कार्तिकेय जी को विनेगर, अन्नामलाई, मुरुगन, सेनसेवारा के रूप में पूजते है उसकी तरह यहां कपालेश्वर महादेव को मूलवर कपालेश्वर और अम्मान कपालेश्वर के रूप में भी पूजा जाता है.
इस मंदिर में माँ पृथ्वी की मूर्ति भी विराजमान है, भक्त जन बड़ी श्रद्धा और आस्था के साथ माँ पृथ्वी देवी की भी आराधना करते है .इसके साथ ही साथ दक्षिण भारत में एक और प्रसिद्ध भगवान मुरुगन जो भगवान शिव के पुत्र का मंदिर हैं वहां उनकी प्रतिमा भी विराजमान है.
इस मंदिर की एक विशेष बात यह – इस मंदिर के अंदर एक छोटा सा तालाब है। जिसके चारों तरफ रंगीन गलियारे हैं। दक्षिण भारतीय स्थापत्य शैली में बने इस मंदिर का सौंदर्य देखते ही बनता है। मंदिर में अमूमन शास्त्रीय संगीत और नृत्य की प्रस्तुतियां होती रहती हैं।
पौराणिक ग्रंथों और शास्त्रों में वर्णित कपालेश्वर मंदिर से जुड़ी बातें –
बताया जाता है की एक बार मां उमा यानी पार्वती ने भगवान शिव के मन्त्र इस ‘ऊं नमः शिवाय’ में से ‘नमः शिवाय’ का अर्थ जानना चाहा था और तब फिर उन्होंने कपालेश्वर मंदिर में भगवान शिव की पूजा करते समय भजन गाना शुरू किया।उस कपलेश्वर मंदिर में जब मां पार्वती भजन गान तेज आवाज में करती थीं तब उनके सामने एक मोर आकर नृत्य करना शुरू कर देता था, वह जो मोर था वह श्रापित था अपने कर्मों की वजह से उस जीव को इस मोर पक्षी की योनि मिली थी । मां पार्वती ने उस मोर के नृत्य से काफी प्रसन्न हुई और उन्होंने उस मोर को मिले शाप से मुक्त कर दिया।
उस मयूर को माँ पार्वती ने मानव रूप देकर करापवली नाम दिया था .उस समय उस स्थान पर कोई गाँव या शहर नहीं था तब माँ ने वहां एक शहर की स्थापना की जिसे मायलापुर कहा गया। आदिकाल से ही इस मंदिर में शास्त्रीय संगीत और नृत्य की परंपरा चली आ रही है।